गलती और गुस्से का रँग लाल



बच्चे की स्कूल की कॉपी में गलत उत्तर पर लाल रँग का वो क्रॉस,
टीचर का बच्चे से कहना कि 'ये पढ़ाई की है तुमने बॉस?'
क्या कर दिया है पूरी कॉपी का हाल,
वो तमतमाते शब्दों में दिखता गुस्से और गलती का रँग लाल।

कुदरत से छेड़छाड़ करने पर, हरी कुदरत मानो हो जाती गुस्से से लाल,
कहीं बाढ़, कहीं सूखा, कहीं लाखों गरीबों को निगल जाता बिन-बुलाया काल,
कुछ काम नहीं आएगा तेरे स्वार्थ का बटोरा हुआ अनगिनत माल,
बिना हवा-पानी के तू आज भी होता है बेहाल,
गुस्से में लाल हवाएँ कहती हैं आज  - तूने बहुत कहर बरपाया, अब मेरी है बारी,
तेरी गलतियों की सज़ा अब भुगतेगी दुनिया सारी!
मेरे गुस्से तेरी गलती का ये रँग लाल।

जब ट्रैफिक सिग्नल पर लाल बत्ती के होते हुए भी,
हम दुगनी रफ़्तार से गाड़ी भगा देते हैं,
तब भी नहीं रुकते जब सड़क पर फैल जाता है रँग लाल,
हादसे छोटी सी एक गलती का होते हैं बड़ा बबाल,
दूसरों की जान की ना सही, अरे मूर्ख, तू अपनी ही फ़िक्र करले फिलहाल,
तेरी गलती, जन आक्रोश और निर्दोष बहते उस लहू का रँग लाल।

फुटबॉल में जब प्लेयर को रैफ्री रैड कार्ड है दिखलाता,
निकल जाता है मैदान से बाहर वो खिलाड़ी जो बार-बार गलती दोहराता,
बस 'एक' और गलती चेतावनी के बाद कि खेल ख़तम हो जाता है,
कभी-कभी जीती हुई बाज़ी को सिर्फ एक खिलाड़ी भी हराता है,
उसकी गलती, रैफ्री का गुस्सा और दर्शकों की निराशाओं का रँग लाल।

बोतल में बंद शराब के लाल पैमानों को ध्यान से गले में डाल,
अति की पी पीकर लाखों का दुनिया से टिकट कटता हर साल,
तेरा है शौक मगर तुझसे जुड़ी जिंदगियों का होता बुरा हाल,
अकेले तो आया था लेकिन तूने भी बुना है परिवार का एक जाल,
सबका गुस्सा, तेरी गलती और बहते सिन्दूर का वो रँग लाल।


Tripti Bisht











वो काला सा दुःख


काला है अँधेरा, काली है रात,
जो मन को आहत कर दे वो एक काली सी बात,
जब रँगीन से भी रँग मानो गायब हो जाए,
और काला काजल आँखों से जब गालों पर बह आए,
जब रौशनी छोड़कर मन लेता है अंधेरे का रुख,
अपनों में भी अकेला कर दे वो काला सा दुःख।

सूरज के आगे मानो काले बादल जब घिर आए,
उम्मीद की जब वो आख़िरी किरण भी ढक जाए,
दिये के दम तोड़ने पर जब इक काली सी बाती छटपटाये,
जो बुझ गया हमेशा के लिए उसे कैसे अँधेरे से वापस लाएँ,
जब साथ किसी के चला जाए जीवन का सारा सुख,
तन्हाई में आपसे बातें करता वो काला सा दुःख।

गले में पड़ा वो काले मोतियों का विवाह सूत्र जब अचानक हट जाए,
उड़ती रंगीन पतँग की डोर मानो एकदम से कट जाए,
सूनी हथेलियों पर जब कोई भी रंगीन चीज़ न भाए,
जीवन में एक मोटी हिचकिचाहट की काली चादर लहराए,
जब अंदर-ही-अंदर एक जलती लकड़ी सा रहा हो कोई फुँक,
अपनी बाहें फैलाकर बुलाता वो काला सा दुःख।

परिंदों के आशियानों पर जब इन्सां की काली नज़र पड़ जाए,
जल कर ख़ाक हुए पेड़ों पर जब डरावनी कालिख नज़र आये,
उन्नति के नाम पर जब काले भविष्य का काला परचम फहराए,
आने वाली दुनिया का सिर्फ ख़याल ही जब कोमल मन को डरा जाए,
काले मंसूबों के बोझ से धरती की कमर जब जाती है झुक,
अट्हास लगाकर इंतज़ार करता वो काला सा दुःख।

उजले चेहरों के पीछे जब काले इरादे दिख जाएँ,
जब नई -नवेली दुल्हन दहेज़ की काली लपटों में खुद को पाए,
उन काले-काले ज़ख्मों पर कोई मरहम न काम आये,
दम तोड़ती उन साँसों पर जब मौत का काला सन्नाटा छाए,
बेबस आँखें बहुत कुछ बोल जाती हैं जब बिना खोले अपना मुख,
हाँ इन काले उजालों से बेहतर लगता वो काला सा दुःख।


Tripti Bisht





क्या ख़ुशी सुनहरी होती है?



जब चेहरे की चमक, आँखों की खनक,
बिना बोले बहुत कुछ कहती है,
जब सोने सा निख़ार जीवन में,
और निराशा कोसों दूर सोती है,
क्या ख़ुशी सुनहरी होती है?

जब इंतज़ार ख़तम हो काली रात,
एक भोर सुनहली देती है,
जब चमकती धूप की स्वर्णिम किरणें
बादल के छोर छू लेती हैं,
जब सागर में पानी की लहरें भी,
हर बूँद में सोना भर लेती हैं,
क्या ख़ुशी सुनहरी होती है?

पग पग बढ़ते क़दमों से,
जब सूरज पहाड़ों को नहलाता,
फूलों पर ओस की बूंदों में,
जब सूरज का रँग चढ़ जाता,
प्रतिबिम्ब ख़ुशी का दिखता है,
जब फूलों पर भँवरा मँडराता,
घोंसले में धूप सेकती जब नन्ही चिड़िया सोती है,
क्या ख़ुशी सुनहरी होती है?

जलती धूप में जब गरीब तन को,
एक चीर का टुकड़ा मिल जाता,
सिकी हुई धरती पर भी जब,
नंगे पैर दौड़ता बच्चा खिलखिलाता,
जब अभाव में भी चेहरे पर संतोष की आभा होती है,
क्या ख़ुशी सुनहरी होती है?

किसान के खेतों में जब सोने सी फ़सल होती है,
खेतों में बहे पसीने से हसरत रोज़ नए मोती पिरोती है,
सबको खिलाने वाले की थाली में जब भरपेट रोटी होती है,
सूरज सी गरिमा जीवन में जब चहुँ ओर दिखाई देती है,
हाँ चमकती हुई मुस्कानों में शायद ख़ुशी सुनहरी होती है ।


Tripti Bisht






जीवन एक इंद्रधनुष

   

कभी मुस्कुराहटें कभी आँसू , कभी आवाज़ तो कभी खामोशी, कभी शरारतें तो कभी भोलापन, और भी न जाने कितने रँग समाये हैं - हाँ जीवन भी एक इंद्रधनुष की तरह है, बस फर्क इतना है कि इसके रँग अनगिनत हैं ।

हर इंसान का इंद्रधनुष अलग होता है, उसके रँग अलग होते हैं, उनका एहसास अलग होता है। मेरे भी जीवन में कई रँगों ने करवट ली है और आगे भी लेते रहेंगे। मेरा हर एक दिन इंद्रधनुष का एक रँग बुनता है । जहाँ बचपन में इंद्रधनुष सिर्फ आसमान में दो पहाड़ों के बीच खिंच जाता था आज वहीँ जीवन के उतार चढ़ाव रोज़ एक नया रँग लेकर आते हैं या फिर शायद एक ही रँग कई दिन तक मेरी जिंदगी को सराबोर कर देता है । जिस दिन ख़ुशी दस्तक देती है उस दिन शायद मेरी जिंदगी का आसमान चमकते रँग सा दिखता होगा और जिस दिन मायूसी छा जाती है या मन उदास हो जाता है तब शायद फीके रँग की एक लकीर खिंच जाती होगी। हम सब जिंदगी के रँगों  से अपना अपना इंद्रधनुष तो बुन ही रहे हैं पर कहीं न कहीं एहसास एक से ही होते हैं फर्क सिर्फ इतना है किसी को ज्यादा किसी को कम, किसी को आज तो किसी को कल।

कहीं खुशियाँ ज्यादा, गम कम,
कहीं रोशनियों ने तोड़ा दम,
कहीं जिंदगी जीत गयी तो कहीं मौत का मातम,
हर किसी के हिस्से में आया उसके इंद्रधनुष का वही रँग,
जो उसने खुद चुना है - न किसी से ज्यादा न कम।

मेरी एक छोटी सी कोशिश जीवन को रँगों के माध्यम से देखने की...

: तृप्ति बिष्ट

दो पैरों की गाड़ी

जहाँ पैदल ही सारेे बच्चे जाते थे स्कूल, क्यों नैनीताल में रहने वाले कई बच्चे चलना गए हैं भूल? घर के सामने वाले पहाड़ पर था मेरा वो स्कूल, कँ...