यूँ ही रहना मेरे पास युगों- युगांतर।
टिमटिमाता दीप
यूँ ही रहना मेरे पास युगों- युगांतर।
वो चार रँग
जाड़े की मखमली धूप में कभी पढ़ते कभी सो जाया करते थे,
टीन की छत को साफ कपड़े से पोंछकर,
माँ के हाथ की बनी गोल-गोल बड़ी-मुँगौड़ियाँ डालने के लिए तेल लगाया करते थे ।
एक सीधी रेखा में दाल और पीली ककड़ी की वो बड़े मोतियों की माला छत पर पिरोने में बड़ा मजा आता था,
बंदरों से उनकी चौकीदारी में पूछो मत कितना ऊपर नीचे भागना हो जाता था ।
जाड़े की धूप में पके हुए बड़े बड़े पहाड़ी नीँबू में मिलाते थे दही, गुड़ और हाथ का पिसा हुआ भाँग का नमक,
सने हुए उस नीँबू को देखकर ही मुँह में पानी आता था,
मेट्रोस की तरह नहीं जहाँ पड़ोसी पड़ोसी को नहीं जानता,
हमारे साथ बैठकर तो आस-पड़ोस भी चटखारे लेकर वो नींबू खाता था ।
रात की नींद से जब सुबह जागते,
पेड़, ज़मीन और पहाड़ों ने ओढ़ी होती थी सफेद नरम चादर,
उस गिरती हुई ताज़ी बर्फ की आइसक्रीम हमने खाई है,
बर्फ के गोलों की सफेद बारिश दोस्तों पर बरसाई है,
यही नहीं बर्फ पर लकड़ी के पटले की 'स्लाईड' भी तो हमने बनाई है ।
ठंड के ये रंग, कुदरत ने दिखाए हैं, चार मौसमों में से ये पहला मेरे बचपन ने भी जिया है, इसके लिए मेरे पहाड़ों का शुक्रिया है।
जाते जाते ठंड बसंत का हाथ पकड़ा जाती थी,
सफेद चादर हटते ही, पहाड़ों की वो हवा रँगीन हो जाती थी,
सेब के पेड़ पर वो रस्सी का झूला, बगीचे में उड़ती रंग-बिरंगी तितलियाँ,
फूलों पर भँवरे और पेड़ पर लदे हरे-हरे खट्टे मीठे सेब और खुबानी,
गर्मियों में भी फ्रिज़ की किसको थी जरूरत, इतना ठँडा और मीठा होता था मेरे पहाड़ों का पानी ।
रसीले काफल और हिशालू जी भरकर खाते थे,
पीले गुलाबी बुड़िया के बाल ( कॉटन कैन्डी) सब खा जाते थे,
बसंत ऋतु का वो रूप मुझे कुदरत ने दिखाया है,
इतना कुछ दिया मुझे हर मौसम ने पर अहसान कभी न जताया है ।
बारिश के तीन महीने गड़गड़ाते बादलों के साथ आते,
काले-काले वो बादल दिन रात बरसकर हम सबको भिगा जाते,
जगह-जगह पानी के छोटे छोटे तालाब बन जाते और हम उनपर छपछपाते एक दूसरे को भिगाते ।
सुबह भी हो जाती शाम सी काली,
न छतरी न रेनकोट, सब हो जाते बेकार,
बाहर निकलना मुश्किल हो जाता, लगता कब खत्म होगा ये बारिश का महीना यार!
जब इन्द्रधनुष का पुल दो पहाड़ों के बीच मुस्कुराता अक़्सर, उसे देखकर भूल जाते हम बारिश की मार ।
बारिश के उस पानी ने एक सबक सिखलाया,
चाहे कितनी गीली हो ज़िन्दगी,
पानी की बूँदें इन्द्रधनुष बनाने का दम रखती हैं,
रँग और खिल उठते हैं जब पानी की बूँदें उन पर पड़ती हैं ।
बारिशों को पीछे छोड़कर, गिरे हुए पत्तों की सरसराहट देती थी शरद् ऋतु के आने का इशारा,
कुरकुरे उन चिनार के पत्तों पर पाँव रखने में बड़ा मज़ा आता था,
उनकी वो आवाज़ सुनकर मन फूला नहीं समाता था,
एक अलग ही सुकून का वो होता था मौसम, जो दिखा जाता मेरे पहाड़ों का वो चौथा रँग ।
पहाड़ों के चार मौसम जिन्दगी की असली झलक दिखाते हैं,
वो अलग बात है कि हम इन्सान ये अक्सर भूल जाते हैं,
मैं शुक्रगुजार हूँ पहाड़ों की जो कट- कटकर भी,
छोटी दिखने वाली बड़ी खुशियाँ और जीने का सबक साथ लाते हैं । #IdoThankU
Tripti Bisht
वो काला सा दुःख
काला है अँधेरा, काली है रात,
जो मन को आहत कर दे वो एक काली सी बात,
जब रँगीन से भी रँग मानो गायब हो जाए,
और काला काजल आँखों से जब गालों पर बह आए,
जब रौशनी छोड़कर मन लेता है अंधेरे का रुख,
अपनों में भी अकेला कर दे वो काला सा दुःख।
सूरज के आगे मानो काले बादल जब घिर आए,
उम्मीद की जब वो आख़िरी किरण भी ढक जाए,
दिये के दम तोड़ने पर जब इक काली सी बाती छटपटाये,
जो बुझ गया हमेशा के लिए उसे कैसे अँधेरे से वापस लाएँ,
जब साथ किसी के चला जाए जीवन का सारा सुख,
तन्हाई में आपसे बातें करता वो काला सा दुःख।
गले में पड़ा वो काले मोतियों का विवाह सूत्र जब अचानक हट जाए,
उड़ती रंगीन पतँग की डोर मानो एकदम से कट जाए,
सूनी हथेलियों पर जब कोई भी रंगीन चीज़ न भाए,
जीवन में एक मोटी हिचकिचाहट की काली चादर लहराए,
जब अंदर-ही-अंदर एक जलती लकड़ी सा रहा हो कोई फुँक,
अपनी बाहें फैलाकर बुलाता वो काला सा दुःख।
परिंदों के आशियानों पर जब इन्सां की काली नज़र पड़ जाए,
जल कर ख़ाक हुए पेड़ों पर जब डरावनी कालिख नज़र आये,
उन्नति के नाम पर जब काले भविष्य का काला परचम फहराए,
आने वाली दुनिया का सिर्फ ख़याल ही जब कोमल मन को डरा जाए,
काले मंसूबों के बोझ से धरती की कमर जब जाती है झुक,
अट्हास लगाकर इंतज़ार करता वो काला सा दुःख।
उजले चेहरों के पीछे जब काले इरादे दिख जाएँ,
जब नई -नवेली दुल्हन दहेज़ की काली लपटों में खुद को पाए,
उन काले-काले ज़ख्मों पर कोई मरहम न काम आये,
दम तोड़ती उन साँसों पर जब मौत का काला सन्नाटा छाए,
बेबस आँखें बहुत कुछ बोल जाती हैं जब बिना खोले अपना मुख,
हाँ इन काले उजालों से बेहतर लगता वो काला सा दुःख।
Tripti Bisht
क्या ख़ुशी सुनहरी होती है?
जब चेहरे की चमक, आँखों की खनक,
बिना बोले बहुत कुछ कहती है,
जब सोने सा निख़ार जीवन में,
और निराशा कोसों दूर सोती है,
क्या ख़ुशी सुनहरी होती है?
जब इंतज़ार ख़तम हो काली रात,
एक भोर सुनहली देती है,
जब चमकती धूप की स्वर्णिम किरणें
बादल के छोर छू लेती हैं,
जब सागर में पानी की लहरें भी,
हर बूँद में सोना भर लेती हैं,
क्या ख़ुशी सुनहरी होती है?
पग पग बढ़ते क़दमों से,
जब सूरज पहाड़ों को नहलाता,
फूलों पर ओस की बूंदों में,
जब सूरज का रँग चढ़ जाता,
प्रतिबिम्ब ख़ुशी का दिखता है,
जब फूलों पर भँवरा मँडराता,
घोंसले में धूप सेकती जब नन्ही चिड़िया सोती है,
क्या ख़ुशी सुनहरी होती है?
जलती धूप में जब गरीब तन को,
एक चीर का टुकड़ा मिल जाता,
सिकी हुई धरती पर भी जब,
नंगे पैर दौड़ता बच्चा खिलखिलाता,
जब अभाव में भी चेहरे पर संतोष की आभा होती है,
क्या ख़ुशी सुनहरी होती है?
किसान के खेतों में जब सोने सी फ़सल होती है,
खेतों में बहे पसीने से हसरत रोज़ नए मोती पिरोती है,
सबको खिलाने वाले की थाली में जब भरपेट रोटी होती है,
सूरज सी गरिमा जीवन में जब चहुँ ओर दिखाई देती है,
हाँ चमकती हुई मुस्कानों में शायद ख़ुशी सुनहरी होती है ।
Tripti Bisht
जीवन एक इंद्रधनुष
कभी मुस्कुराहटें कभी आँसू , कभी आवाज़ तो कभी खामोशी, कभी शरारतें तो कभी भोलापन, और भी न जाने कितने रँग समाये हैं - हाँ जीवन भी एक इंद्रधनुष की तरह है, बस फर्क इतना है कि इसके रँग अनगिनत हैं ।
हर इंसान का इंद्रधनुष अलग होता है, उसके रँग अलग होते हैं, उनका एहसास अलग होता है। मेरे भी जीवन में कई रँगों ने करवट ली है और आगे भी लेते रहेंगे। मेरा हर एक दिन इंद्रधनुष का एक रँग बुनता है । जहाँ बचपन में इंद्रधनुष सिर्फ आसमान में दो पहाड़ों के बीच खिंच जाता था आज वहीँ जीवन के उतार चढ़ाव रोज़ एक नया रँग लेकर आते हैं या फिर शायद एक ही रँग कई दिन तक मेरी जिंदगी को सराबोर कर देता है । जिस दिन ख़ुशी दस्तक देती है उस दिन शायद मेरी जिंदगी का आसमान चमकते रँग सा दिखता होगा और जिस दिन मायूसी छा जाती है या मन उदास हो जाता है तब शायद फीके रँग की एक लकीर खिंच जाती होगी। हम सब जिंदगी के रँगों से अपना अपना इंद्रधनुष तो बुन ही रहे हैं पर कहीं न कहीं एहसास एक से ही होते हैं फर्क सिर्फ इतना है किसी को ज्यादा किसी को कम, किसी को आज तो किसी को कल।
कहीं खुशियाँ ज्यादा, गम कम,
कहीं रोशनियों ने तोड़ा दम,
कहीं जिंदगी जीत गयी तो कहीं मौत का मातम,
हर किसी के हिस्से में आया उसके इंद्रधनुष का वही रँग,
जो उसने खुद चुना है - न किसी से ज्यादा न कम।
मेरी एक छोटी सी कोशिश जीवन को रँगों के माध्यम से देखने की...
दो पैरों की गाड़ी
जहाँ पैदल ही सारेे बच्चे जाते थे स्कूल, क्यों नैनीताल में रहने वाले कई बच्चे चलना गए हैं भूल? घर के सामने वाले पहाड़ पर था मेरा वो स्कूल, कँ...
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कभी मुस्कुराहटें कभी आँसू , कभी आवाज़ तो कभी खामोशी, कभी शरारतें तो कभी भोलापन, और भी न जाने कितने रँग समाये हैं - हाँ जीवन भी एक इं...
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होली के रँगों में भीगे, अपने हर दोस्त के घर जाया करते थे, आलू के चटपटे पहाड़ी गुटके चम्मच होते हुए भी, माचिस की उल्टी तिल्लियों से खाया करते...




