यूँ ही रहना मेरे पास युगों- युगांतर।
टिमटिमाता दीप
यूँ ही रहना मेरे पास युगों- युगांतर।
मैला चाँद
जिंदगी सच में बहुत अजीब है,
क्या सोचो क्या हो जाता है,
कितना भी संभाल कर रख लो,
हर कदम पर कुछ न कुछ खो जाता है।
जब आसान तरीके से चल सकती है राहें,
हम मुश्किलें खुद बढ़ाते हैं,
अपनी मर्ज़ियाँ थोप कर जीने को हम,
खुशियों का जामा पहनाते हैं।
क्यों नहीं अपनी-अपनी राह चलकर
रास्ता तय हो सकता है,
क्यों हर बात पर एक स्वीकृति चाहिए,
क्यों अपनी साँसों पर भी दूसरों का पहरा लगता है।
हाँ, हैं ख़ामियाँ सब में ही,
तुम में, मुझ में, सब में,
तो उन्ही खामियों सँग क्यों नहीं जीते लोग,
कुरेद-कुरेद कर मानो तार-तार ही हो जाएगा,
ये वक़्त इतना भारी है कि कोई कुछ समझ नहीं पायेगा।
रिश्तों का आवरण तो शायद हर जगह फैला है,
जो चमक रहा सूरज की तरह बाहर से,
हर रिश्ता आज चाँद जितना ही मैला है।
Tripti Bisht
वो काला सा दुःख
काला है अँधेरा, काली है रात,
जो मन को आहत कर दे वो एक काली सी बात,
जब रँगीन से भी रँग मानो गायब हो जाए,
और काला काजल आँखों से जब गालों पर बह आए,
जब रौशनी छोड़कर मन लेता है अंधेरे का रुख,
अपनों में भी अकेला कर दे वो काला सा दुःख।
सूरज के आगे मानो काले बादल जब घिर आए,
उम्मीद की जब वो आख़िरी किरण भी ढक जाए,
दिये के दम तोड़ने पर जब इक काली सी बाती छटपटाये,
जो बुझ गया हमेशा के लिए उसे कैसे अँधेरे से वापस लाएँ,
जब साथ किसी के चला जाए जीवन का सारा सुख,
तन्हाई में आपसे बातें करता वो काला सा दुःख।
गले में पड़ा वो काले मोतियों का विवाह सूत्र जब अचानक हट जाए,
उड़ती रंगीन पतँग की डोर मानो एकदम से कट जाए,
सूनी हथेलियों पर जब कोई भी रंगीन चीज़ न भाए,
जीवन में एक मोटी हिचकिचाहट की काली चादर लहराए,
जब अंदर-ही-अंदर एक जलती लकड़ी सा रहा हो कोई फुँक,
अपनी बाहें फैलाकर बुलाता वो काला सा दुःख।
परिंदों के आशियानों पर जब इन्सां की काली नज़र पड़ जाए,
जल कर ख़ाक हुए पेड़ों पर जब डरावनी कालिख नज़र आये,
उन्नति के नाम पर जब काले भविष्य का काला परचम फहराए,
आने वाली दुनिया का सिर्फ ख़याल ही जब कोमल मन को डरा जाए,
काले मंसूबों के बोझ से धरती की कमर जब जाती है झुक,
अट्हास लगाकर इंतज़ार करता वो काला सा दुःख।
उजले चेहरों के पीछे जब काले इरादे दिख जाएँ,
जब नई -नवेली दुल्हन दहेज़ की काली लपटों में खुद को पाए,
उन काले-काले ज़ख्मों पर कोई मरहम न काम आये,
दम तोड़ती उन साँसों पर जब मौत का काला सन्नाटा छाए,
बेबस आँखें बहुत कुछ बोल जाती हैं जब बिना खोले अपना मुख,
हाँ इन काले उजालों से बेहतर लगता वो काला सा दुःख।
Tripti Bisht
क्या ख़ुशी सुनहरी होती है?
जब चेहरे की चमक, आँखों की खनक,
बिना बोले बहुत कुछ कहती है,
जब सोने सा निख़ार जीवन में,
और निराशा कोसों दूर सोती है,
क्या ख़ुशी सुनहरी होती है?
जब इंतज़ार ख़तम हो काली रात,
एक भोर सुनहली देती है,
जब चमकती धूप की स्वर्णिम किरणें
बादल के छोर छू लेती हैं,
जब सागर में पानी की लहरें भी,
हर बूँद में सोना भर लेती हैं,
क्या ख़ुशी सुनहरी होती है?
पग पग बढ़ते क़दमों से,
जब सूरज पहाड़ों को नहलाता,
फूलों पर ओस की बूंदों में,
जब सूरज का रँग चढ़ जाता,
प्रतिबिम्ब ख़ुशी का दिखता है,
जब फूलों पर भँवरा मँडराता,
घोंसले में धूप सेकती जब नन्ही चिड़िया सोती है,
क्या ख़ुशी सुनहरी होती है?
जलती धूप में जब गरीब तन को,
एक चीर का टुकड़ा मिल जाता,
सिकी हुई धरती पर भी जब,
नंगे पैर दौड़ता बच्चा खिलखिलाता,
जब अभाव में भी चेहरे पर संतोष की आभा होती है,
क्या ख़ुशी सुनहरी होती है?
किसान के खेतों में जब सोने सी फ़सल होती है,
खेतों में बहे पसीने से हसरत रोज़ नए मोती पिरोती है,
सबको खिलाने वाले की थाली में जब भरपेट रोटी होती है,
सूरज सी गरिमा जीवन में जब चहुँ ओर दिखाई देती है,
हाँ चमकती हुई मुस्कानों में शायद ख़ुशी सुनहरी होती है ।
Tripti Bisht
जीवन एक इंद्रधनुष
कभी मुस्कुराहटें कभी आँसू , कभी आवाज़ तो कभी खामोशी, कभी शरारतें तो कभी भोलापन, और भी न जाने कितने रँग समाये हैं - हाँ जीवन भी एक इंद्रधनुष की तरह है, बस फर्क इतना है कि इसके रँग अनगिनत हैं ।
हर इंसान का इंद्रधनुष अलग होता है, उसके रँग अलग होते हैं, उनका एहसास अलग होता है। मेरे भी जीवन में कई रँगों ने करवट ली है और आगे भी लेते रहेंगे। मेरा हर एक दिन इंद्रधनुष का एक रँग बुनता है । जहाँ बचपन में इंद्रधनुष सिर्फ आसमान में दो पहाड़ों के बीच खिंच जाता था आज वहीँ जीवन के उतार चढ़ाव रोज़ एक नया रँग लेकर आते हैं या फिर शायद एक ही रँग कई दिन तक मेरी जिंदगी को सराबोर कर देता है । जिस दिन ख़ुशी दस्तक देती है उस दिन शायद मेरी जिंदगी का आसमान चमकते रँग सा दिखता होगा और जिस दिन मायूसी छा जाती है या मन उदास हो जाता है तब शायद फीके रँग की एक लकीर खिंच जाती होगी। हम सब जिंदगी के रँगों से अपना अपना इंद्रधनुष तो बुन ही रहे हैं पर कहीं न कहीं एहसास एक से ही होते हैं फर्क सिर्फ इतना है किसी को ज्यादा किसी को कम, किसी को आज तो किसी को कल।
कहीं खुशियाँ ज्यादा, गम कम,
कहीं रोशनियों ने तोड़ा दम,
कहीं जिंदगी जीत गयी तो कहीं मौत का मातम,
हर किसी के हिस्से में आया उसके इंद्रधनुष का वही रँग,
जो उसने खुद चुना है - न किसी से ज्यादा न कम।
मेरी एक छोटी सी कोशिश जीवन को रँगों के माध्यम से देखने की...
दो पैरों की गाड़ी
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होली के रँगों में भीगे, अपने हर दोस्त के घर जाया करते थे, आलू के चटपटे पहाड़ी गुटके चम्मच होते हुए भी, माचिस की उल्टी तिल्लियों से खाया करते...




