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छोटे शहर की बड़ी होली




होली के रँगों में भीगे, अपने हर दोस्त के घर जाया करते थे,
आलू के चटपटे पहाड़ी गुटके चम्मच होते हुए भी,
माचिस की उल्टी तिल्लियों से खाया करते थे।

होली से चार-पाँच दिन पहले छोटी-छोटी फूल की टहनियों के पत्तों से,
माँ नये सफेद कपड़ों पर गीले रँग के गुलाबी और हरे छींटे डालती,
पहाड़ों में इसे कहते हैं 'रँग पड़ना',
हम बच्चों के लिए वो संकेत होता था होली की तैयारियों का बड़ना।

मेरे बचपन के त्यौहारों की कुछ बात अलग होती थी,
हर त्यौहार बहुत मेहनत कराता था,
तब कहाँ रैडीमेड खाने का सामान आता था!
हर इन्सान तब अधिकतर सिर्फ घर का खाना खाता था,
पूरा परिवार जुट जाता और तैयारियों में माँ का हाथ बटाता था।

होली में पूरे परिवार का कुछ दिन पहले साथ बैठकर गोजे (गुजिया) बनाना,
हाथ के मोड़े हुए गोजों को तलने से पहले अखबार पर फैलाकर सुखाना,
अगर फट जाए कुछ ज्यादा भरा हुआ गोजा,
तो छेद से झाँकती हुई सूज़ी, खोया और किशमिश पर गीले मैदे का टल्ला लगाना  

मेरा काम होता था सिर्फ़ बेली हुई मैदे की गोल पूरी पर खोया और सूजी का छोटा सा ढेर लगाना,
या उस ढेर के ऊपर फूली हुई पानी में भीगी किशमिश सजाना,
गोजों को हाथ से मोड़ना सब बड़ों का काम होता था,
मेरे लिए तो हाथ से मुड़ती हुई मैदे की वो दो परतों को देखना मानो जादू का कोई खेल होता था,
आज भी मुझसे गोजे हाथ से परफैक्ट नहीं मोड़े जाते,
पर फिर भी मैं मशीन नहीं हाथ ही से उन्हें बनाती हूँ,
करत-करत अभ्यास के जड़मत होत सुजान - हाँ मैं ये सोचकर हर साल होली पर गोजे मोड़े जाती हूँ।

जब सूख जाते गोजे, माँ देर रात तक उन्हें तलते रह जाती,
आज जब खुद गोजे बनाने और तलने पड़ते हैं,
तब ये बात समझ में आती है,
पहाड़ों की यही वो छोटी-छोटी बातें हैं जो शायद,
वहाँ के त्यौहारों को कुछ अलग बनाती हैं।

होली से कई दिन पहले काफी लोग उनके घर होली गाने का न्यौता दे जाते,
जिसमें सिर्फ औरतों की एन्ट्री होती थी,
फिर ढोलक की थाप पर होली के कुँमाउनी गीत गाये जाते,
हँसी, ठठाकों के साथ-साथ बूढ़ी आमा (नानी/दादी), ईजा (माँ),
दीदीयों और नई-नई भाभियों के ठुमके भी उनमें दिख जाते,
होली गवाने के लिए सब अपनी टर्न लगाते, कोई सुबह तो कोई रात को होली गवाता,
जिस घर में होली गाई जाती वो सबको चाय, गुड़, आलू के गुटके और गोजे खिलाता,
मम्मियों के पीछे-पीछे हम बच्चों का भी झुण्ड होली देखने, एक-आद लाईन गाने और आलू खाने पहुँच जाता।

माँ का पा की शर्ट और सफेद पैन्ट  पहनकर,
आँखों पर काला चश्मा चड़ाना और सिर पर टोपी पहनकर लड़का बनकर मेरी दोस्त के घर जाना,
रास्ते में मुड़-मुड़ कर अपनी पूँछ को (मुझे) बार-बार 'तू मेरे पीछे मत आ बेटा' कहकर घर वापस भगाना,
मैं फिर भी दूरी बनाकर रोनी सूरत बनाए उनके पीछे लग जाती थी,
मुझे कहाँ पता था भला कि साल भर सिर्फ साड़ी में दिखने वाली मेरी माँ होली का 'स्वाँग' भी परफैक्ट तरीके से निभाती थी।

घर जाकर मेरी दोस्त के वो उसकी मम्मी से उनकी सबसे बड़ी बेटी का शादी के लिए हाथ माँगती,
'हम तुम्हारी बेटी से शादी करना चाहता है' कहकर अँग्रेजों की तरह स्टाईल मारती
आन्टी पहचान न पाती माँ को और हिचकिचाती,
पड़ोस की औरतें जमा हो जाती और दबी आवाज़ में,
एक दूसरे को देख शरारत से मुस्कुराती।

होली की पहली रात खूब मेहनत से नल के नीचे लगाकर फुलाए गए छोटे गुब्बारों को,
रँग से भरकर पक्की गाँठ बाँधी जाती,
कई गुब्बारे फटे हुए निकलते या फुलाते समय ही फूट जाते,
मुझे फुले-फुलाए मिलते, आफत दीदी, दद्दा और पा की थी आती।

एक पीतल की बाल्टी में पानी भरकर पानी के गुब्बारे डाल दिये जाते,
ये होते उनके लिए जो 'छलड़ी' का जश्न मनाने होली की सुबह एक पैग मारकर आते,
या फिर उन दोस्तों के लिए जिनके बिल्कुल पास जाकर हम कुछ न बिगाड़ पाते,
दूर से निशाना लगाकर किसी-किसी पर मार दिया जाता रँगीन पानी का गुब्बारा,
फूट जाता जब उनके ऊपर तो खुशी का ठिकाना नहीं होता हमारा।

छलड़ी (होली) की सुबह एक थाली में रखा जाता गुलाल, सौंफ और बाँस मिशरी,
कोरी सफेद रँग की कुछ सिगरेट भी उस थाली में बैठी मुस्कुराती,
रँगों से सराबोर हुए सिर्फ कुछ ही हाथ इन्हें उठाते थे, जिससे वो भी रँगीन हो, होली मनाती थी।

फिर खिलाए जाते गोजे और आलू के गुटके,
पड़ोस का हर इन्सान होली की बधाई देने आता था,
छोटी-छोटी टोलियों को नचाता कोई ढोलक बजाता जाता था।

कुँमाउनी होली वाले गीत उस त्यौहार को चार चाँद लगाते थे...
'जल कैसे भरूँ यमुना गहरी...' 'मेरो रंगीलो देवर घर ऎरौ छौ"...
'रँग में होली कैसे खेलूँगी मैं साँवरिया के संग, अबीर उड़ता गुलाल उड़ता उड़ते सातों रँग सखी री...'
 'झुकी आयो शहर में व्योपारी...'  गाते-गाते सब झोड़े (लोक नृत्य) करने खड़े हो जाते थे।

क्योंकि बच्चों को झोड़े के बोल नहीं आते थे,
हम सिर्फ "हो हो" करके जोड़ लगाते थे,
एक दूसरे की कमर में हाथ डाले एक गोले में चक्कर लगाते थे,
तीन कदम आगे, एक कदम पीछे
सब एक लय में चलते जाते थे।

कई दिन पहले शुरु होने वाली मेरे पहाड़ों के छोटे शहर की होली में,
मेरे भारत की एक छाप होती थी,
त्यौहार तो आज भी आते हैं मगर,
छोटे शहर के छोटे घरों में त्यौहारों की एक अलग बात होती थी। #IdoThankU

Tripti Bisht


*I wrote this for IdoThankU platform.


गलती और गुस्से का रँग लाल



बच्चे की स्कूल की कॉपी में गलत उत्तर पर लाल रँग का वो क्रॉस,
टीचर का बच्चे से कहना कि 'ये पढ़ाई की है तुमने बॉस?'
क्या कर दिया है पूरी कॉपी का हाल,
वो तमतमाते शब्दों में दिखता गुस्से और गलती का रँग लाल।

कुदरत से छेड़छाड़ करने पर, हरी कुदरत मानो हो जाती गुस्से से लाल,
कहीं बाढ़, कहीं सूखा, कहीं लाखों गरीबों को निगल जाता बिन-बुलाया काल,
कुछ काम नहीं आएगा तेरे स्वार्थ का बटोरा हुआ अनगिनत माल,
बिना हवा-पानी के तू आज भी होता है बेहाल,
गुस्से में लाल हवाएँ कहती हैं आज  - तूने बहुत कहर बरपाया, अब मेरी है बारी,
तेरी गलतियों की सज़ा अब भुगतेगी दुनिया सारी!
मेरे गुस्से तेरी गलती का ये रँग लाल।

जब ट्रैफिक सिग्नल पर लाल बत्ती के होते हुए भी,
हम दुगनी रफ़्तार से गाड़ी भगा देते हैं,
तब भी नहीं रुकते जब सड़क पर फैल जाता है रँग लाल,
हादसे छोटी सी एक गलती का होते हैं बड़ा बबाल,
दूसरों की जान की ना सही, अरे मूर्ख, तू अपनी ही फ़िक्र करले फिलहाल,
तेरी गलती, जन आक्रोश और निर्दोष बहते उस लहू का रँग लाल।

फुटबॉल में जब प्लेयर को रैफ्री रैड कार्ड है दिखलाता,
निकल जाता है मैदान से बाहर वो खिलाड़ी जो बार-बार गलती दोहराता,
बस 'एक' और गलती चेतावनी के बाद कि खेल ख़तम हो जाता है,
कभी-कभी जीती हुई बाज़ी को सिर्फ एक खिलाड़ी भी हराता है,
उसकी गलती, रैफ्री का गुस्सा और दर्शकों की निराशाओं का रँग लाल।

बोतल में बंद शराब के लाल पैमानों को ध्यान से गले में डाल,
अति की पी पीकर लाखों का दुनिया से टिकट कटता हर साल,
तेरा है शौक मगर तुझसे जुड़ी जिंदगियों का होता बुरा हाल,
अकेले तो आया था लेकिन तूने भी बुना है परिवार का एक जाल,
सबका गुस्सा, तेरी गलती और बहते सिन्दूर का वो रँग लाल।


Tripti Bisht











वो काला सा दुःख


काला है अँधेरा, काली है रात,
जो मन को आहत कर दे वो एक काली सी बात,
जब रँगीन से भी रँग मानो गायब हो जाए,
और काला काजल आँखों से जब गालों पर बह आए,
जब रौशनी छोड़कर मन लेता है अंधेरे का रुख,
अपनों में भी अकेला कर दे वो काला सा दुःख।

सूरज के आगे मानो काले बादल जब घिर आए,
उम्मीद की जब वो आख़िरी किरण भी ढक जाए,
दिये के दम तोड़ने पर जब इक काली सी बाती छटपटाये,
जो बुझ गया हमेशा के लिए उसे कैसे अँधेरे से वापस लाएँ,
जब साथ किसी के चला जाए जीवन का सारा सुख,
तन्हाई में आपसे बातें करता वो काला सा दुःख।

गले में पड़ा वो काले मोतियों का विवाह सूत्र जब अचानक हट जाए,
उड़ती रंगीन पतँग की डोर मानो एकदम से कट जाए,
सूनी हथेलियों पर जब कोई भी रंगीन चीज़ न भाए,
जीवन में एक मोटी हिचकिचाहट की काली चादर लहराए,
जब अंदर-ही-अंदर एक जलती लकड़ी सा रहा हो कोई फुँक,
अपनी बाहें फैलाकर बुलाता वो काला सा दुःख।

परिंदों के आशियानों पर जब इन्सां की काली नज़र पड़ जाए,
जल कर ख़ाक हुए पेड़ों पर जब डरावनी कालिख नज़र आये,
उन्नति के नाम पर जब काले भविष्य का काला परचम फहराए,
आने वाली दुनिया का सिर्फ ख़याल ही जब कोमल मन को डरा जाए,
काले मंसूबों के बोझ से धरती की कमर जब जाती है झुक,
अट्हास लगाकर इंतज़ार करता वो काला सा दुःख।

उजले चेहरों के पीछे जब काले इरादे दिख जाएँ,
जब नई -नवेली दुल्हन दहेज़ की काली लपटों में खुद को पाए,
उन काले-काले ज़ख्मों पर कोई मरहम न काम आये,
दम तोड़ती उन साँसों पर जब मौत का काला सन्नाटा छाए,
बेबस आँखें बहुत कुछ बोल जाती हैं जब बिना खोले अपना मुख,
हाँ इन काले उजालों से बेहतर लगता वो काला सा दुःख।


Tripti Bisht





क्या ख़ुशी सुनहरी होती है?



जब चेहरे की चमक, आँखों की खनक,
बिना बोले बहुत कुछ कहती है,
जब सोने सा निख़ार जीवन में,
और निराशा कोसों दूर सोती है,
क्या ख़ुशी सुनहरी होती है?

जब इंतज़ार ख़तम हो काली रात,
एक भोर सुनहली देती है,
जब चमकती धूप की स्वर्णिम किरणें
बादल के छोर छू लेती हैं,
जब सागर में पानी की लहरें भी,
हर बूँद में सोना भर लेती हैं,
क्या ख़ुशी सुनहरी होती है?

पग पग बढ़ते क़दमों से,
जब सूरज पहाड़ों को नहलाता,
फूलों पर ओस की बूंदों में,
जब सूरज का रँग चढ़ जाता,
प्रतिबिम्ब ख़ुशी का दिखता है,
जब फूलों पर भँवरा मँडराता,
घोंसले में धूप सेकती जब नन्ही चिड़िया सोती है,
क्या ख़ुशी सुनहरी होती है?

जलती धूप में जब गरीब तन को,
एक चीर का टुकड़ा मिल जाता,
सिकी हुई धरती पर भी जब,
नंगे पैर दौड़ता बच्चा खिलखिलाता,
जब अभाव में भी चेहरे पर संतोष की आभा होती है,
क्या ख़ुशी सुनहरी होती है?

किसान के खेतों में जब सोने सी फ़सल होती है,
खेतों में बहे पसीने से हसरत रोज़ नए मोती पिरोती है,
सबको खिलाने वाले की थाली में जब भरपेट रोटी होती है,
सूरज सी गरिमा जीवन में जब चहुँ ओर दिखाई देती है,
हाँ चमकती हुई मुस्कानों में शायद ख़ुशी सुनहरी होती है ।


Tripti Bisht






जीवन एक इंद्रधनुष

   

कभी मुस्कुराहटें कभी आँसू , कभी आवाज़ तो कभी खामोशी, कभी शरारतें तो कभी भोलापन, और भी न जाने कितने रँग समाये हैं - हाँ जीवन भी एक इंद्रधनुष की तरह है, बस फर्क इतना है कि इसके रँग अनगिनत हैं ।

हर इंसान का इंद्रधनुष अलग होता है, उसके रँग अलग होते हैं, उनका एहसास अलग होता है। मेरे भी जीवन में कई रँगों ने करवट ली है और आगे भी लेते रहेंगे। मेरा हर एक दिन इंद्रधनुष का एक रँग बुनता है । जहाँ बचपन में इंद्रधनुष सिर्फ आसमान में दो पहाड़ों के बीच खिंच जाता था आज वहीँ जीवन के उतार चढ़ाव रोज़ एक नया रँग लेकर आते हैं या फिर शायद एक ही रँग कई दिन तक मेरी जिंदगी को सराबोर कर देता है । जिस दिन ख़ुशी दस्तक देती है उस दिन शायद मेरी जिंदगी का आसमान चमकते रँग सा दिखता होगा और जिस दिन मायूसी छा जाती है या मन उदास हो जाता है तब शायद फीके रँग की एक लकीर खिंच जाती होगी। हम सब जिंदगी के रँगों  से अपना अपना इंद्रधनुष तो बुन ही रहे हैं पर कहीं न कहीं एहसास एक से ही होते हैं फर्क सिर्फ इतना है किसी को ज्यादा किसी को कम, किसी को आज तो किसी को कल।

कहीं खुशियाँ ज्यादा, गम कम,
कहीं रोशनियों ने तोड़ा दम,
कहीं जिंदगी जीत गयी तो कहीं मौत का मातम,
हर किसी के हिस्से में आया उसके इंद्रधनुष का वही रँग,
जो उसने खुद चुना है - न किसी से ज्यादा न कम।

मेरी एक छोटी सी कोशिश जीवन को रँगों के माध्यम से देखने की...

: तृप्ति बिष्ट

दो पैरों की गाड़ी

जहाँ पैदल ही सारेे बच्चे जाते थे स्कूल, क्यों नैनीताल में रहने वाले कई बच्चे चलना गए हैं भूल? घर के सामने वाले पहाड़ पर था मेरा वो स्कूल, कँ...