Tripti Bisht
दो पैरों की गाड़ी
छोटे शहर की बड़ी होली
होली के रँगों में भीगे, अपने हर दोस्त के घर जाया करते थे,
आलू के चटपटे पहाड़ी गुटके चम्मच होते हुए भी,
माचिस की उल्टी तिल्लियों से खाया करते थे।
होली से चार-पाँच दिन पहले छोटी-छोटी फूल की टहनियों के पत्तों से,
माँ नये सफेद कपड़ों पर गीले रँग के गुलाबी और हरे छींटे डालती,
पहाड़ों में इसे कहते हैं 'रँग पड़ना',
हम बच्चों के लिए वो संकेत होता था होली की तैयारियों का बड़ना।
मेरे बचपन के त्यौहारों की कुछ बात अलग होती थी,
हर त्यौहार बहुत मेहनत कराता था,
तब कहाँ रैडीमेड खाने का सामान आता था!
हर इन्सान तब अधिकतर सिर्फ घर का खाना खाता था,
पूरा परिवार जुट जाता और तैयारियों में माँ का हाथ बटाता था।
होली में पूरे परिवार का कुछ दिन पहले साथ बैठकर गोजे (गुजिया) बनाना,
हाथ के मोड़े हुए गोजों को तलने से पहले अखबार पर फैलाकर सुखाना,
अगर फट जाए कुछ ज्यादा भरा हुआ गोजा,
तो छेद से झाँकती हुई सूज़ी, खोया और किशमिश पर गीले मैदे का टल्ला लगाना।
मेरा काम होता था सिर्फ़ बेली हुई मैदे की गोल पूरी पर खोया और सूजी का छोटा सा ढेर लगाना,
या उस ढेर के ऊपर फूली हुई पानी में भीगी किशमिश सजाना,
गोजों को हाथ से मोड़ना सब बड़ों का काम होता था,
मेरे लिए तो हाथ से मुड़ती हुई मैदे की वो दो परतों को देखना मानो जादू का कोई खेल होता था,
आज भी मुझसे गोजे हाथ से परफैक्ट नहीं मोड़े जाते,
पर फिर भी मैं मशीन नहीं हाथ ही से उन्हें बनाती हूँ,
करत-करत अभ्यास के जड़मत होत सुजान - हाँ मैं ये सोचकर हर साल होली पर गोजे मोड़े जाती हूँ।
जब सूख जाते गोजे, माँ देर रात तक उन्हें तलते रह जाती,
आज जब खुद गोजे बनाने और तलने पड़ते हैं,
तब ये बात समझ में आती है,
पहाड़ों की यही वो छोटी-छोटी बातें हैं जो शायद,
वहाँ के त्यौहारों को कुछ अलग बनाती हैं।
होली से कई दिन पहले काफी लोग उनके घर होली गाने का न्यौता दे जाते,
जिसमें सिर्फ औरतों की एन्ट्री होती थी,
फिर ढोलक की थाप पर होली के कुँमाउनी गीत गाये जाते,
हँसी, ठठाकों के साथ-साथ बूढ़ी आमा (नानी/दादी), ईजा (माँ),
दीदीयों और नई-नई भाभियों के ठुमके भी उनमें दिख जाते,
होली गवाने के लिए सब अपनी टर्न लगाते, कोई सुबह तो कोई रात को होली गवाता,
जिस घर में होली गाई जाती वो सबको चाय, गुड़, आलू के गुटके और गोजे खिलाता,
मम्मियों के पीछे-पीछे हम बच्चों का भी झुण्ड होली देखने, एक-आद लाईन गाने और आलू खाने पहुँच जाता।
माँ का पा की शर्ट और सफेद पैन्ट पहनकर,
आँखों पर काला चश्मा चड़ाना और सिर पर टोपी पहनकर लड़का बनकर मेरी दोस्त के घर जाना,
रास्ते में मुड़-मुड़ कर अपनी पूँछ को (मुझे) बार-बार 'तू मेरे पीछे मत आ बेटा' कहकर घर वापस भगाना,
मैं फिर भी दूरी बनाकर रोनी सूरत बनाए उनके पीछे लग जाती थी,
मुझे कहाँ पता था भला कि साल भर सिर्फ साड़ी में दिखने वाली मेरी माँ होली का 'स्वाँग' भी परफैक्ट तरीके से निभाती थी।
घर जाकर मेरी दोस्त के वो उसकी मम्मी से उनकी सबसे बड़ी बेटी का शादी के लिए हाथ माँगती,
'हम तुम्हारी बेटी से शादी करना चाहता है' कहकर अँग्रेजों की तरह स्टाईल मारती
आन्टी पहचान न पाती माँ को और हिचकिचाती,
पड़ोस की औरतें जमा हो जाती और दबी आवाज़ में,
एक दूसरे को देख शरारत से मुस्कुराती।
होली की पहली रात खूब मेहनत से नल के नीचे लगाकर फुलाए गए छोटे गुब्बारों को,
रँग से भरकर पक्की गाँठ बाँधी जाती,
कई गुब्बारे फटे हुए निकलते या फुलाते समय ही फूट जाते,
मुझे फुले-फुलाए मिलते, आफत दीदी, दद्दा और पा की थी आती।
एक पीतल की बाल्टी में पानी भरकर पानी के गुब्बारे डाल दिये जाते,
ये होते उनके लिए जो 'छलड़ी' का जश्न मनाने होली की सुबह एक पैग मारकर आते,
या फिर उन दोस्तों के लिए जिनके बिल्कुल पास जाकर हम कुछ न बिगाड़ पाते,
दूर से निशाना लगाकर किसी-किसी पर मार दिया जाता रँगीन पानी का गुब्बारा,
फूट जाता जब उनके ऊपर तो खुशी का ठिकाना नहीं होता हमारा।
छलड़ी (होली) की सुबह एक थाली में रखा जाता गुलाल, सौंफ और बाँस मिशरी,
कोरी सफेद रँग की कुछ सिगरेट भी उस थाली में बैठी मुस्कुराती,
रँगों से सराबोर हुए सिर्फ कुछ ही हाथ इन्हें उठाते थे, जिससे वो भी रँगीन हो, होली मनाती थी।
फिर खिलाए जाते गोजे और आलू के गुटके,
पड़ोस का हर इन्सान होली की बधाई देने आता था,
छोटी-छोटी टोलियों को नचाता कोई ढोलक बजाता जाता था।
कुँमाउनी होली वाले गीत उस त्यौहार को चार चाँद लगाते थे...
'जल कैसे भरूँ यमुना गहरी...' 'मेरो रंगीलो देवर घर ऎरौ छौ"...
'रँग में होली कैसे खेलूँगी मैं साँवरिया के संग, अबीर उड़ता गुलाल उड़ता उड़ते सातों रँग सखी री...'
'झुकी आयो शहर में व्योपारी...' गाते-गाते सब झोड़े (लोक नृत्य) करने खड़े हो जाते थे।
क्योंकि बच्चों को झोड़े के बोल नहीं आते थे,
हम सिर्फ "हो हो" करके जोड़ लगाते थे,
एक दूसरे की कमर में हाथ डाले एक गोले में चक्कर लगाते थे,
तीन कदम आगे, एक कदम पीछे
सब एक लय में चलते जाते थे।
कई दिन पहले शुरु होने वाली मेरे पहाड़ों के छोटे शहर की होली में,
मेरे भारत की एक छाप होती थी,
त्यौहार तो आज भी आते हैं मगर,
छोटे शहर के छोटे घरों में त्यौहारों की एक अलग बात होती थी। #IdoThankU
Tripti Bisht
*I wrote this for IdoThankU platform.
टिमटिमाता दीप
यूँ ही रहना मेरे पास युगों- युगांतर।
मैला चाँद
जिंदगी सच में बहुत अजीब है,
क्या सोचो क्या हो जाता है,
कितना भी संभाल कर रख लो,
हर कदम पर कुछ न कुछ खो जाता है।
जब आसान तरीके से चल सकती है राहें,
हम मुश्किलें खुद बढ़ाते हैं,
अपनी मर्ज़ियाँ थोप कर जीने को हम,
खुशियों का जामा पहनाते हैं।
क्यों नहीं अपनी-अपनी राह चलकर
रास्ता तय हो सकता है,
क्यों हर बात पर एक स्वीकृति चाहिए,
क्यों अपनी साँसों पर भी दूसरों का पहरा लगता है।
हाँ, हैं ख़ामियाँ सब में ही,
तुम में, मुझ में, सब में,
तो उन्ही खामियों सँग क्यों नहीं जीते लोग,
कुरेद-कुरेद कर मानो तार-तार ही हो जाएगा,
ये वक़्त इतना भारी है कि कोई कुछ समझ नहीं पायेगा।
रिश्तों का आवरण तो शायद हर जगह फैला है,
जो चमक रहा सूरज की तरह बाहर से,
हर रिश्ता आज चाँद जितना ही मैला है।
Tripti Bisht
ठहराव
एक ओर ठहरा हुआ जलाशय, एक ओर दौड़ती हुई नदिया,
दोनों बने तो हैं पानी ही से, फिर भला इतना अंतर क्यों?
नदी तो उन्माद उमंग से भरी है, उत्सुक है एक शिशु समान आगे बढ़ने के लिए,
खिलखिलाता है उसका पानी, हर एक बूँद में है जान।
जलाशय क्यों हैं इतना उदास, निर्जीव लगती है हर एक बूँद,
एक वृद्ध समान उसने अपनी आँखें रखी हैं मूँद,
बहुत थका, उत्साह रहित लगता है, मानो भूल ही गया है मुस्कुराना,
शायद इसलिए क्यूंकि उसे पता है उसे कहीं नहीं जाना।
उदासी का कारण पूछा मैंने तो जलाशय बोला,
मुझसे पूछो एक ही जगह पर पड़े रहना कितना दर्द देता है,
मेरी हर एक बूँद का भविष्य जब मेरे अतीत में अपनी मंज़िल बना लेता है।
Tripti Bisht
क्या कभी समझेंगे हम?
सोचा था जल्द ही पानी को तरसेंगे हम,
पता नहीं था उस से पहले ही साँस लेने को हवा पड़ जाएगी ऐसे कम,
गुमाँ तो था मगर इतनी जल्दी वो वक्त आ जाएगा,
किसे पता था हर काटा गया पेड़ भी अटकती सॉंसों को देख यूँ अट्टहास लगाएगा।
वाईरस को सब कोस रहे, डर कर सहमें बैठे हैं अपने घरों में,
जो बेफिक्र उड़ते रहते थे, वो भी हैं अब पहरों में।
जँगल, नदियाँ, पहाड़... कुृछ भी तो नहीं छोड़ा हमने, हर जगह अपनी नाक घुसाई है,
बहुत कर लिया विध्वंस चारों ओर, अब तो प्रकृति की बारी आई है।
मनमानी का है ये नतीजा़, हम जो चाहे करेंगे,
हवा, पानी, अनाज़, धूप - ये भला कहाँ खतम होने हैं,
जितना मन किया उससे ज्यादा ही लेंगे,
बेकद्री में हमसे कौन भला आगे, पानी व्यर्थ में बहता है तो बहने दो न,
गँगा में गँगाजल के बदले गन्दा जल है तो क्या हुआ, जानवरों का घर जँगल भी हम ही हथियाएँगे,
धरती क्या चीज़ है, हम तो चाँद और मार्स पर भी गन्द फैलाएँगे।
कुदरत के साथ जब भी खेला इन्सॉं, अपना ही जीवन कर बैठा कम,
कल नही समझे, आज भी नहीं समझे तो क्या कभी समझेंगे हम?
Tripti Bisht
गलती और गुस्से का रँग लाल
टीचर का बच्चे से कहना कि 'ये पढ़ाई की है तुमने बॉस?'
कुदरत से छेड़छाड़ करने पर, हरी कुदरत मानो हो जाती गुस्से से लाल,
कहीं बाढ़, कहीं सूखा, कहीं लाखों गरीबों को निगल जाता बिन-बुलाया काल,
कुछ काम नहीं आएगा तेरे स्वार्थ का बटोरा हुआ अनगिनत माल,
बिना हवा-पानी के तू आज भी होता है बेहाल,
गुस्से में लाल हवाएँ कहती हैं आज - तूने बहुत कहर बरपाया, अब मेरी है बारी,
तेरी गलतियों की सज़ा अब भुगतेगी दुनिया सारी!
मेरे गुस्से तेरी गलती का ये रँग लाल।
जब ट्रैफिक सिग्नल पर लाल बत्ती के होते हुए भी,
हम दुगनी रफ़्तार से गाड़ी भगा देते हैं,
तब भी नहीं रुकते जब सड़क पर फैल जाता है रँग लाल,
हादसे छोटी सी एक गलती का होते हैं बड़ा बबाल,
दूसरों की जान की ना सही, अरे मूर्ख, तू अपनी ही फ़िक्र करले फिलहाल,
तेरी गलती, जन आक्रोश और निर्दोष बहते उस लहू का रँग लाल।
फुटबॉल में जब प्लेयर को रैफ्री रैड कार्ड है दिखलाता,
निकल जाता है मैदान से बाहर वो खिलाड़ी जो बार-बार गलती दोहराता,
बस 'एक' और गलती चेतावनी के बाद कि खेल ख़तम हो जाता है,
कभी-कभी जीती हुई बाज़ी को सिर्फ एक खिलाड़ी भी हराता है,
उसकी गलती, रैफ्री का गुस्सा और दर्शकों की निराशाओं का रँग लाल।
बोतल में बंद शराब के लाल पैमानों को ध्यान से गले में डाल,
अति की पी पीकर लाखों का दुनिया से टिकट कटता हर साल,
तेरा है शौक मगर तुझसे जुड़ी जिंदगियों का होता बुरा हाल,
अकेले तो आया था लेकिन तूने भी बुना है परिवार का एक जाल,
Tripti Bisht
दो पैरों की गाड़ी
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On the corner of the road She sits with eyes that speak Waiting for the passerby friends To hold her raised hand that greets All she...