जहाँ पैदल ही सारेे बच्चे जाते थे स्कूल,
क्यों नैनीताल में रहने वाले कई बच्चे चलना गए हैं भूल?
घर के सामने वाले पहाड़ पर था मेरा वो स्कूल,
कँधों पर भारी बैग टाँगकर फटाफट निकल जाते थे,
ये उस टाईम की बात है साहब जब सारे बच्चे,
चड़ाई उतरकर फिर चड़कर स्कूल पैदल आते थे।
अमीरी और गरीबी का फर्क खत्म हो जाता था,
पैदल चलकर स्कूल जाना तो सबको फिट बनाता था,
तब कहाँ स्कूल वैन्स का हुज़ूम होता था,
पैदल चलकर हर कोई सुकून की नींद सोता था,
सिर्फ बीमार या बुजुर्ग ही गाड़ी का सहारा लेते थे,
हम तो एक दिन में जाने कितनी बार पहाड़ चड़ देते थे।
पहाड़ भी तब चैन की ठण्डी साँस लेता था,
और हम सबको शुद्ध ठन्डी हवा देता था,
आज तो हर बच्चा स्कूल वैन में जाता है,
चलने के नाम पर हर कोई कतराता है।
"हमारे बच्चे के सारे दोस्त वैन से ही जाते हैं",
ये कहकर शायद घर के बड़े अपने मन को बहलाते हैं,
आधुनिकता और बराबरी का पाठ कोसों आगे निकल जाता है,
पहाड़ियों के पैदल न चलने की कीमत आज मेरा पहाड़ गिर-गिरकर चुकाता है।
गाड़ियों का बोझ बड़ता ही जाता है,
लैंडस्लाईड का खतरा बारिशों में मँडराता है,
हर पहाड़ी तो पैदल चलने के लिए होता था मशहूर,
फिर क्यों हम पहाड़ों की इस अनमोल देन से हो रहे हैं दूर?
मैं शुक्रगुज़ार हूँ अपने उस बचपन की जब,
साँस फूलने पर भी बिना रूके स्कूल की चड़ाई चड़ जाते थे,
शाम को लौटते हुए नीरूज़ की दुकान से मस्त बन-टिक खाते थे।
बारिश में रेनकोट और छाता लेकर पैदल ही स्कूल जाते थे,
कसकर अपनी छाता पकड़ हम उसे तेज़ हवा में उल्टी होने से बचाते थे,
दूसरों को उनकी उड़ती हुई छाता के पीछे भागता देख कभी मुस्कुराते थे,
बारिशों को पीछे छोड़कर हम हर छोटे पल का आनन्द उठाते थे,
अब लगता है कि वो चलकर जाना सिर्फ स्कूल ही नहीं पहुँचाता था,
वो स्कूल तक का रास्ता तो अनगिनत यादें बटोर कर लाता था।
कड़कती ठँड में भी हम पैदल ही स्कूल जाते थे,
हाथ में ऊन के दस्ताने और होठों तक मफलर लपेटे हुए,
कभी बर्फ, कभी ओले तो कभी घने कोहरे की चादर को चीरकर,
हम अपने स्कूल का वो पहाड़ चड़ते जाते थे।
गाड़ी से भले ही बच्चे जल्दी पहुँच जाते हैं, पर उनको नहीं पता,
वो न चलकर क्या-क्या मिस कर जाते हैं,
क्यूँ न चलाना सिखाएँ हम बच्चों को अपने दो पैरों की गाड़ी,
जो पहाड़ न चड़ सके वो आखिर कैसा पहाड़ी?
Tripti Bisht