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ठहराव


एक ओर ठहरा हुआ जलाशय, एक ओर दौड़ती हुई नदिया,

दोनों बने तो हैं पानी ही से, फिर भला इतना अंतर क्यों?

नदी तो उन्माद उमंग से भरी है, उत्सुक है एक शिशु समान आगे बढ़ने के लिए,

खिलखिलाता है उसका पानी, हर एक बूँद में है जान।

जलाशय क्यों हैं इतना उदास, निर्जीव लगती है हर एक बूँद,

एक वृद्ध समान उसने अपनी आँखें रखी हैं मूँद, 

बहुत थका, उत्साह रहित लगता है, मानो भूल ही गया है मुस्कुराना,

शायद इसलिए क्यूंकि उसे पता है उसे कहीं नहीं जाना।

उदासी का कारण पूछा मैंने तो जलाशय बोला,

मुझसे पूछो एक ही जगह पर पड़े रहना कितना दर्द देता है,

मेरी हर एक बूँद का भविष्य जब मेरे अतीत में अपनी मंज़िल बना लेता है।


Tripti Bisht


क्या कभी समझेंगे हम?




सोचा था जल्द ही पानी को तरसेंगे हम,
पता नहीं था उस से पहले ही साँस लेने को हवा पड़ जाएगी ऐसे कम,
गुमाँ तो था मगर इतनी जल्दी वो वक्त आ जाएगा,
किसे पता था हर काटा गया पेड़ भी अटकती सॉंसों को देख यूँ अट्टहास लगाएगा।

वाईरस को सब कोस रहे, डर कर सहमें बैठे हैं अपने घरों में,
जो बेफिक्र उड़ते रहते थे, वो भी हैं अब पहरों में।
जँगल, नदियाँ, पहाड़... कुृछ भी तो नहीं छोड़ा हमने, हर जगह अपनी नाक घुसाई है,
बहुत कर लिया विध्वंस चारों ओर, अब तो प्रकृति की बारी आई है।

मनमानी का है ये नतीजा़, हम जो चाहे करेंगे,
हवा, पानी, अनाज़, धूप - ये भला कहाँ खतम होने हैं,
जितना मन किया उससे ज्यादा ही लेंगे,
बेकद्री में हमसे कौन भला आगे, पानी व्यर्थ में बहता है तो बहने दो न,
गँगा में गँगाजल के बदले गन्दा जल है तो क्या हुआ, जानवरों का घर जँगल भी हम ही हथियाएँगे,
धरती क्या चीज़ है, हम तो चाँद और मार्स पर भी गन्द फैलाएँगे।

कुदरत के साथ जब भी खेला इन्सॉं, अपना ही जीवन कर बैठा कम,
कल नही समझे, आज भी नहीं समझे तो क्या कभी समझेंगे हम?


Tripti Bisht

दो पैरों की गाड़ी

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