मेरी पहचान



स्कूल के लिए मेरी दो चोटियाँ बनाकर,
उनको घुमाकर काले रिब्बन के दो फूल बाँधती,
जब मैं क्लास में फर्स्ट आती तो शहर की मशहूर किताबों की दुकान से,
वो मुझे ढेर सारी मेरी मनपसन्द कॉमिक्स दिलवाती,
वहीं पास के एक फोटो स्टूडियो में हर साल फर्स्ट डिविज़न के कप के साथ मेरी फोटो खिंचाती,
कटे हुए कच्चे नारियल के नाव-नुमा टुकड़े जो दो से पाँच रूपए के मिलते, माँ मुझे खूब खिलाती।

मेरी हर पसन्द नापसन्द जब मैं बोल भी नहीं पाती थी तबसे जानती है,
और एक मैं हूँ जो आज भी शायद, माँ के अद्भुत प्यार को पूरा नहीं पहचानती।

जब-जब बचपन में मुझे बुखार आता,
"माँ, समोसा खिला दो बड़ा मन है, क्या पता मेरी आखरी इच्छा हो?"
ये कहकर उसके ममता भरे निश्चल मन से मैं नादानी में खेल जाती,
बाज़ार दूर होता था, भागी-भागी वो पहाड़ की चड़ाई  उतरकर और फिर चड़कर मेरे लिए समोसे लाती,
मैं खुश होकर खाती वो हँसते हुए मेरी शैतानी पर भी लाड जताती।

वो रोज़ मुझे स्कूल खत्म होने के बाद लेने आती,
कई बार स्कूल की छुट्टी के बाद रास्ते में पड़ने वाली दुकान से,
गरमा-गरम बन-मक्खन खिलाती, जो तब नहीं देखा कभी, अब महसूस होता है,
तुमने मुझे वो खुशहाल, यादगार बचपन दिया जिसकी प्यार भरी बारिश में,
मेरा वर्तमान आज भी खुद को भिगोता है।

मेरे हर जन्मदिन पर सुबह-सुबह मेरे मुँह में बरफी का टुकड़ा डालकर प्यार से उठाती थी,
सबसे छोटी थी तो उसे खूब परेशान किया मैंने पर वो फिर भी मुस्कुराती थी,
मेरी हर पी.टी.एम में माँ मेरे स्कूल आती,
बिना शब्दों में जताए उसका मुझ पर वो गर्व,
मानो दिल ही दिल में उसने मेरे सपनों की दुनिया बसाई थी।

सिर्फ मेरी नहीं, वो मेरे बचपन के दोस्तों की भी दोस्त है,
ठिठुरती ठन्ड में सगड़ के चारों ओर बैठकर चलता बातों का सिलसिला,
पैसे भी जमा होते पिज़्ज़ा पार्टी के लिए, वो भी अपना हिस्सा देती मिला,
वो हर एक को अपने बच्चे जितना प्यार देती,
बदले में सिर्फ खिलखिलाहटें समेटती।

आज भी उसका जीवन के लिए जज़्बा काबिले तारीफ है,
कैसा भी समय हो वो हिम्मत नहीं हारती,
ज़िन्दादिली की मिसाल है, सब्र का सागर है,
कैसे कर लेती हो इतना सब माँ, हर रिश्ते को तुम हो बस सँवारती।

उसके अन्दर का वो मासूम बच्चा दिख जाता है कई बार,
जो उत्साह से भरा रहता है उड़ने को जैसे बेबाक पतँग,
माँ तो सबकी बेमिसाल होती हैं, मैं तुम्हारी बनकर जन्मी, सौभाग्य है मेरा,
बस खुद तक रख लूँ तुम्हारा अनन्त प्रेम हर जनम में तो ये स्वार्थ होगा,
अगली बार किसी नए जीवन को छूना माँ,
दुनिया को और बेहतरीन बनाना, कोई तुम्हें कितना भी दुखाए,
सबको बाँटना अपना अनोखा स्नेह, वही करना जो करती आई हो,
एक नायाब तोहफा जो सिर्फ तुम लाई हो।

तुम्हारा बन पाऊँगी या नहीं, तुम मेरा अभिमान हो,
ईजा, माँ, मम्मी किसी भी नाम से पुकारूँ, माँ, तुम मेरी पहचान हो।


Tripti Bisht






 

टिमटिमाता दीप






मेरे जीवन की धुरी हो,
पैरों के नीचे की ज़मीं  हो,
जो ओढ़ा है हर पल सर पर मैंने,
मेरा वो कभी न ख़तम होने वाला आस्मां ही तो हो।

हाज़री की पत्तियों के रस में,
जो हर चोट पर लग जाता है,
रसीले आमों में या गुड़ के टुकड़ों में,
आपका ही चेहरा मुस्कुराता है।

बारिश से लड़ते डहेलिया के उन फूलों में,
ठण्ड में सगड़ के सुलगते कोयले और उड़ते धुएँ में,
टीन की छत के नीचे रखी हुई दराती और खुरपी में,
आड़ू और नीम्बू के वो लदे हुए पेड़ों में,
खेत में उग रही उन ताज़ी सब्जियों में, 
कुछ और नज़र नहीं आता है,
चारों तरफ बस आपका अहसास मंडराता है।

हॉकी की स्टिक और खनकते मेडलों के गुच्छे में,
फुटबॉल के मैच में, १०० मीटर की रेस में, क्रिकेट के उस खेल में,
रोज़ की दिनचर्या लिखी डाईरियों में,
हर जगह हवा की तरह बह रहे हो निरंतर,
ऐसा कुछ भी तो नहीं जहाँ नहीं हो आप,
यूँ ही रहना मेरे पास युगों- युगांतर।

आज भी मेरी मुश्किलों का रास्ता हो,
निराशाओं के बीच मेरी उम्मीद हो,
हवाओं से हार ना मानने वाला,
"पा",आप ही तो मेरा वो टिमटिमाता नन्हा सा दीप हो।


Tripti Bisht





मैला चाँद


जिंदगी सच में बहुत अजीब है,
क्या सोचो क्या हो जाता है,
कितना भी संभाल कर रख लो,
हर कदम पर कुछ न कुछ खो जाता है।

जब आसान तरीके से चल सकती है राहें,
हम मुश्किलें खुद बढ़ाते हैं,
अपनी मर्ज़ियाँ थोप कर जीने को हम,
खुशियों का जामा पहनाते हैं।

क्यों नहीं अपनी-अपनी राह चलकर
रास्ता तय हो सकता है,
क्यों हर बात पर एक स्वीकृति चाहिए,
क्यों अपनी साँसों पर भी दूसरों का पहरा लगता है।

हाँ, हैं ख़ामियाँ सब में ही,
तुम में, मुझ में, सब में,
तो उन्ही खामियों सँग क्यों नहीं जीते लोग,
कुरेद-कुरेद कर मानो तार-तार ही हो जाएगा,
ये वक़्त इतना भारी है कि कोई कुछ समझ नहीं पायेगा।

रिश्तों का आवरण तो शायद हर जगह फैला है,
जो चमक रहा सूरज की तरह बाहर से,
हर रिश्ता आज चाँद जितना ही मैला है।


Tripti Bisht






Waste it now, lose it forever!



The man brushed his teeth while the water kept running,
Not bothered to close the tap until he finally rinsed his mouth,
He probably thought what difference does it make in a few seconds,
Not just him, it's a serious issue most of us don't even reckon.

A young lad entered the bathroom,
Turned on the shower and let a strong steady stream drench him,
With his favourite numbers playing on the mobile, he kept humming or singing,
The shower went on for half an hour or even more,
He wanted to go on and still didn't feel like stopping,
Unless his mother asked him to come out and came knocking!

How many of us forget the privilege of getting a shower daily,
When we end up wasting more water with an increased shower time,
While thousands are dying without water, remember, this is no less than a crime.

Every morning when people switched on the motors to fill their personal water tanks,
The water kept overflowing for quite a few flats,
Hearing it fall down like that - my heart sank,
No one was bothered to use a water tank alarm and save the wastage,
Who's tank overflows every day? I said loudly on purpose,
The silence of spectators makes me all the more nervous.

If you don't want water to be history,
Act now and do what you can do every single day,
Save water, save the earth, be clever
Or waste it today and lose it forever!


Tripti Bisht

ठहराव


एक ओर ठहरा हुआ जलाशय, एक ओर दौड़ती हुई नदिया,

दोनों बने तो हैं पानी ही से, फिर भला इतना अंतर क्यों?

नदी तो उन्माद उमंग से भरी है, उत्सुक है एक शिशु समान आगे बढ़ने के लिए,

खिलखिलाता है उसका पानी, हर एक बूँद में है जान।

जलाशय क्यों हैं इतना उदास, निर्जीव लगती है हर एक बूँद,

एक वृद्ध समान उसने अपनी आँखें रखी हैं मूँद, 

बहुत थका, उत्साह रहित लगता है, मानो भूल ही गया है मुस्कुराना,

शायद इसलिए क्यूंकि उसे पता है उसे कहीं नहीं जाना।

उदासी का कारण पूछा मैंने तो जलाशय बोला,

मुझसे पूछो एक ही जगह पर पड़े रहना कितना दर्द देता है,

मेरी हर एक बूँद का भविष्य जब मेरे अतीत में अपनी मंज़िल बना लेता है।


Tripti Bisht


क्या कभी समझेंगे हम?




सोचा था जल्द ही पानी को तरसेंगे हम,
पता नहीं था उस से पहले ही साँस लेने को हवा पड़ जाएगी ऐसे कम,
गुमाँ तो था मगर इतनी जल्दी वो वक्त आ जाएगा,
किसे पता था हर काटा गया पेड़ भी अटकती सॉंसों को देख यूँ अट्टहास लगाएगा।

वाईरस को सब कोस रहे, डर कर सहमें बैठे हैं अपने घरों में,
जो बेफिक्र उड़ते रहते थे, वो भी हैं अब पहरों में।
जँगल, नदियाँ, पहाड़... कुृछ भी तो नहीं छोड़ा हमने, हर जगह अपनी नाक घुसाई है,
बहुत कर लिया विध्वंस चारों ओर, अब तो प्रकृति की बारी आई है।

मनमानी का है ये नतीजा़, हम जो चाहे करेंगे,
हवा, पानी, अनाज़, धूप - ये भला कहाँ खतम होने हैं,
जितना मन किया उससे ज्यादा ही लेंगे,
बेकद्री में हमसे कौन भला आगे, पानी व्यर्थ में बहता है तो बहने दो न,
गँगा में गँगाजल के बदले गन्दा जल है तो क्या हुआ, जानवरों का घर जँगल भी हम ही हथियाएँगे,
धरती क्या चीज़ है, हम तो चाँद और मार्स पर भी गन्द फैलाएँगे।

कुदरत के साथ जब भी खेला इन्सॉं, अपना ही जीवन कर बैठा कम,
कल नही समझे, आज भी नहीं समझे तो क्या कभी समझेंगे हम?


Tripti Bisht

Where's the dustbin?

The woman on the second floor,
Came out on her balcony,
Turned her handbag upside down,
And threw all the garbage on the ground,
Where's her dustbin? I thought, giving her a hard stare,
She went in with great ignorance almost saying I don't care!

It was a nice sunny afternoon, the town was choking with tourists,
They came as the hills were calling, but left behind something appalling,
Litter on the roads and in the lake, the mountains were sighing - for heaven's sake!
From a Scorpio stepped out the 'all-white' politician,
Threw the empty plastic bottle on the ground,
I looked at him in disbelief and muttered - What a pity, dustbin's right here, but can't be found?

A summer evening it was and folks were out for a walk,
Two young girls went to the ice-cream hawker by the roadside,
Took off the ice-cream wrapper, threw it on the road, and continued with their talk,
For them, it wasn't a big deal, or is it a big mental block?
While the hawker had a makeshift dustbin, why are most of us so thick-skinned?

It is right inside our homes or at times right in front of our eyes,
If not then why don't we just look around to find one?
What you do today you shall pass on to your kin,
Will there be a day when no one will need to ask - Where's the dustbin?


Tripti Bisht








The Lesson



She opens her small shop by 7:00 in the morning
Settles down and looks around
Picks up the cold milk pack and tears its corner
Pours the milk in the Tea pan
And heats it till it's a little warmer

Calls out names of the street dogs she feeds
Lapping it all they come wagging their tails one by one
She refills it till all her babies are done

For the ones sitting below the cars
She sits on her knees and passes the blue bowl
Talks to them in Malayalam
I tell you she is a special soul
For the language of love is felt rather than spoken
She spreads kindness even though her own heart is broken

Getting back to her shop counter
Waiting for the customers with her biscuit, bread, milk, and what not!
She is very giving - has always been I know
Not just dogs, for all the animals she does a lot

Caw! Caw! goes the crow sitting on her black tarpaulin over the roof
This time it is the small 'Aalu bhujia' pack that she sprinkles in front of the shop
The first time that I saw a crow enjoying the savoury snack
Illiterate she may be but knows what educated hearts lack

Out of the little that she earns
She spends a big part on dogs, cats, and birds
Sometimes feeding them, sometimes taking them to a Doc
Places water-filled clay pots on the roadside
Brings chicken or mutton rice for the dogs and cats as a weekly treat
"You are an unsung hero, many more like you we need" - I always repeat

I feel so 'small' in front of her
She does so much with so little
The lesson of 'illiterate kindness' that her acts teach
I just wish that one day to all the 'educated hearts' it may finally reach.


Tripti Bisht

*Image by shirley stirling from Pixabay 



















वो चार रँग

जाड़े की मखमली धूप में कभी पढ़ते कभी सो जाया करते थे,
टीन की छत को साफ कपड़े से पोंछकर,
माँ के हाथ की बनी गोल-गोल बड़ी-मुँगौड़ियाँ डालने के लिए तेल लगाया करते थे ।

एक सीधी रेखा में दाल और पीली ककड़ी की वो बड़े मोतियों की माला छत पर पिरोने में बड़ा मजा आता था,
बंदरों से उनकी चौकीदारी में पूछो मत कितना ऊपर नीचे भागना हो जाता था ।

जाड़े की धूप में पके हुए बड़े बड़े पहाड़ी नीँबू में मिलाते थे दही, गुड़ और हाथ का पिसा हुआ भाँग का नमक,
सने हुए उस नीँबू को देखकर ही मुँह में पानी आता था,
मेट्रोस की तरह नहीं जहाँ पड़ोसी पड़ोसी को नहीं जानता,
हमारे साथ बैठकर तो आस-पड़ोस भी चटखारे लेकर वो नींबू खाता था ।

रात की नींद से जब सुबह जागते,
पेड़, ज़मीन और पहाड़ों ने ओढ़ी होती थी सफेद नरम चादर,
उस गिरती हुई ताज़ी बर्फ की आइसक्रीम हमने खाई है,
बर्फ के गोलों की सफेद बारिश दोस्तों पर बरसाई है,
यही नहीं बर्फ पर लकड़ी के पटले की 'स्लाईड' भी तो हमने बनाई है ।

ठंड के ये रंग, कुदरत ने दिखाए हैं, चार मौसमों में से ये पहला मेरे बचपन ने भी जिया है, इसके लिए मेरे पहाड़ों का शुक्रिया है।

जाते जाते ठंड बसंत का हाथ पकड़ा जाती थी,
सफेद चादर हटते ही, पहाड़ों की वो हवा रँगीन हो जाती थी,
सेब के पेड़ पर वो रस्सी का झूला, बगीचे में उड़ती रंग-बिरंगी तितलियाँ,
फूलों पर भँवरे और पेड़ पर लदे हरे-हरे खट्टे मीठे सेब और खुबानी,
गर्मियों में भी फ्रिज़ की किसको थी जरूरत, इतना ठँडा और मीठा होता था मेरे पहाड़ों का पानी ।

रसीले काफल और हिशालू जी भरकर खाते थे,
पीले गुलाबी बुड़िया के बाल ( कॉटन कैन्डी) सब खा जाते थे,
बसंत ऋतु का वो रूप मुझे कुदरत ने दिखाया है,
इतना कुछ दिया मुझे हर मौसम ने पर अहसान कभी न जताया है ।

बारिश के तीन महीने गड़गड़ाते बादलों के साथ आते,
काले-काले वो बादल दिन रात बरसकर हम सबको भिगा जाते,
जगह-जगह पानी के छोटे छोटे तालाब बन जाते और हम उनपर छपछपाते एक दूसरे को भिगाते ।

सुबह भी हो जाती शाम सी काली,
न छतरी न रेनकोट, सब हो जाते बेकार,
बाहर निकलना मुश्किल हो जाता, लगता कब खत्म होगा ये बारिश का महीना यार!
जब इन्द्रधनुष का पुल दो पहाड़ों के बीच मुस्कुराता अक़्सर, उसे देखकर भूल जाते हम बारिश की मार ।

बारिश के उस पानी ने एक सबक सिखलाया,
चाहे कितनी गीली हो ज़िन्दगी,
पानी की बूँदें इन्द्रधनुष बनाने का दम रखती हैं,
रँग और खिल उठते हैं जब पानी की बूँदें उन पर पड़ती हैं ।

बारिशों को पीछे छोड़कर, गिरे हुए पत्तों की सरसराहट देती थी शरद् ऋतु के आने का इशारा,
कुरकुरे उन चिनार के पत्तों पर पाँव रखने में बड़ा मज़ा आता था,
उनकी वो आवाज़ सुनकर मन फूला नहीं समाता था,
एक अलग ही सुकून का वो होता था मौसम, जो दिखा जाता मेरे पहाड़ों का वो चौथा रँग ।

पहाड़ों के चार मौसम जिन्दगी की असली झलक दिखाते हैं,
वो अलग बात है कि हम इन्सान ये अक्सर भूल जाते हैं,
मैं शुक्रगुजार हूँ पहाड़ों की जो कट- कटकर भी,
छोटी दिखने वाली बड़ी खुशियाँ और जीने का सबक साथ लाते हैं । #IdoThankU


Tripti Bisht


The Rugged Shortcut


It was the rainy season in Nainital, Uttarakhand. I woke up to get ready for the school and noticed that Paa wasn’t home. Usually, by the time I woke up and got ready, he was home after a round of football, hockey, or basketball post his morning walk. He always made the best of the time he had on his hands before leaving for work. I had never seen him sitting idle, he was always up to something productive. “Maa, where is Paa?” I asked. She said he had left early morning with a spade and hoe without saying a word.

We wondered what it could be as those were his home-gardening tools. For a minute, I thought he must have gone to dig the Dahlia tubers for transplanting them in the home garden. “Though he always shifts the tubers from one place to the other in the garden rather than hunting for them,” I thought to myself. Knowing that only Paa could tell us what he had set out for, I got back to my morning routine. After packing my school bag, I ate the ‘Cheeni ka Parantha’ made by Maa (breakfast those days had a set menu but we still loved every bit of it unlike the tantrums thrown by the little kids today).

Just as I was about to leave for school, Paa arrived. His hands, hoe, and spade all covered with wet soil. Before we could ask where he had been, he said: “I went and cleaned the rugged shortcut you take to school.”

I stood there in disbelief as the realization hit me with the speed of light. I cursed myself about what I had said the previous day about that shortcut. “It is so slippery and dirty because of the fallen leaves and wet mud. It becomes very difficult to walk as one is forced to run down the slope with full chances of falling.” What I certainly missed the other day was that Paa had heard it all!

As I approached the rugged track after leaving for school, I felt a lump in my throat, my eyes ready to swell. Paa had removed all the fallen leaves and even tried his best to make the track as even as possible. What I did not say that day before leaving for school or after coming from school since I was so overwhelmed and not so good at expressing, I say it today, “Thank You Paa, I Love You!” (Maa, I love you too J )

Let us all begin with not taking unconditional love for granted, let us express our gratitude towards everyone who has touched our lives in their special ways.  #IDoThankYou


Tripti Bisht

HELLO!

On the corner of the road
She sits with eyes that speak
Waiting for the passerby friends
To hold her raised hand that greets

All she wants is a smile for a smile
A hello for a hello
She is always waiting there
Not to just take what you have
But give back a feeling that's so rare

My conversations with her
Cover all things possible
From Corona and her eye allergy
To her old age and love for cottage cheese

I love the way she listens patiently
As I hold her hand in mine
She is a comforting soul
Who doesn't speak yet understands

The unsaid words are louder than
What words can often convey
Some friendships are beyond humans
I call them real humans... dogs some say

There comes my sweetheart
In her black and white fur
'Motee' they call her
A wagging tail and four legs...
The bond I always prefer.



Tripti Bisht




गलती और गुस्से का रँग लाल



बच्चे की स्कूल की कॉपी में गलत उत्तर पर लाल रँग का वो क्रॉस,
टीचर का बच्चे से कहना कि 'ये पढ़ाई की है तुमने बॉस?'
क्या कर दिया है पूरी कॉपी का हाल,
वो तमतमाते शब्दों में दिखता गुस्से और गलती का रँग लाल।

कुदरत से छेड़छाड़ करने पर, हरी कुदरत मानो हो जाती गुस्से से लाल,
कहीं बाढ़, कहीं सूखा, कहीं लाखों गरीबों को निगल जाता बिन-बुलाया काल,
कुछ काम नहीं आएगा तेरे स्वार्थ का बटोरा हुआ अनगिनत माल,
बिना हवा-पानी के तू आज भी होता है बेहाल,
गुस्से में लाल हवाएँ कहती हैं आज  - तूने बहुत कहर बरपाया, अब मेरी है बारी,
तेरी गलतियों की सज़ा अब भुगतेगी दुनिया सारी!
मेरे गुस्से तेरी गलती का ये रँग लाल।

जब ट्रैफिक सिग्नल पर लाल बत्ती के होते हुए भी,
हम दुगनी रफ़्तार से गाड़ी भगा देते हैं,
तब भी नहीं रुकते जब सड़क पर फैल जाता है रँग लाल,
हादसे छोटी सी एक गलती का होते हैं बड़ा बबाल,
दूसरों की जान की ना सही, अरे मूर्ख, तू अपनी ही फ़िक्र करले फिलहाल,
तेरी गलती, जन आक्रोश और निर्दोष बहते उस लहू का रँग लाल।

फुटबॉल में जब प्लेयर को रैफ्री रैड कार्ड है दिखलाता,
निकल जाता है मैदान से बाहर वो खिलाड़ी जो बार-बार गलती दोहराता,
बस 'एक' और गलती चेतावनी के बाद कि खेल ख़तम हो जाता है,
कभी-कभी जीती हुई बाज़ी को सिर्फ एक खिलाड़ी भी हराता है,
उसकी गलती, रैफ्री का गुस्सा और दर्शकों की निराशाओं का रँग लाल।

बोतल में बंद शराब के लाल पैमानों को ध्यान से गले में डाल,
अति की पी पीकर लाखों का दुनिया से टिकट कटता हर साल,
तेरा है शौक मगर तुझसे जुड़ी जिंदगियों का होता बुरा हाल,
अकेले तो आया था लेकिन तूने भी बुना है परिवार का एक जाल,
सबका गुस्सा, तेरी गलती और बहते सिन्दूर का वो रँग लाल।


Tripti Bisht











वो काला सा दुःख


काला है अँधेरा, काली है रात,
जो मन को आहत कर दे वो एक काली सी बात,
जब रँगीन से भी रँग मानो गायब हो जाए,
और काला काजल आँखों से जब गालों पर बह आए,
जब रौशनी छोड़कर मन लेता है अंधेरे का रुख,
अपनों में भी अकेला कर दे वो काला सा दुःख।

सूरज के आगे मानो काले बादल जब घिर आए,
उम्मीद की जब वो आख़िरी किरण भी ढक जाए,
दिये के दम तोड़ने पर जब इक काली सी बाती छटपटाये,
जो बुझ गया हमेशा के लिए उसे कैसे अँधेरे से वापस लाएँ,
जब साथ किसी के चला जाए जीवन का सारा सुख,
तन्हाई में आपसे बातें करता वो काला सा दुःख।

गले में पड़ा वो काले मोतियों का विवाह सूत्र जब अचानक हट जाए,
उड़ती रंगीन पतँग की डोर मानो एकदम से कट जाए,
सूनी हथेलियों पर जब कोई भी रंगीन चीज़ न भाए,
जीवन में एक मोटी हिचकिचाहट की काली चादर लहराए,
जब अंदर-ही-अंदर एक जलती लकड़ी सा रहा हो कोई फुँक,
अपनी बाहें फैलाकर बुलाता वो काला सा दुःख।

परिंदों के आशियानों पर जब इन्सां की काली नज़र पड़ जाए,
जल कर ख़ाक हुए पेड़ों पर जब डरावनी कालिख नज़र आये,
उन्नति के नाम पर जब काले भविष्य का काला परचम फहराए,
आने वाली दुनिया का सिर्फ ख़याल ही जब कोमल मन को डरा जाए,
काले मंसूबों के बोझ से धरती की कमर जब जाती है झुक,
अट्हास लगाकर इंतज़ार करता वो काला सा दुःख।

उजले चेहरों के पीछे जब काले इरादे दिख जाएँ,
जब नई -नवेली दुल्हन दहेज़ की काली लपटों में खुद को पाए,
उन काले-काले ज़ख्मों पर कोई मरहम न काम आये,
दम तोड़ती उन साँसों पर जब मौत का काला सन्नाटा छाए,
बेबस आँखें बहुत कुछ बोल जाती हैं जब बिना खोले अपना मुख,
हाँ इन काले उजालों से बेहतर लगता वो काला सा दुःख।


Tripti Bisht





क्या ख़ुशी सुनहरी होती है?



जब चेहरे की चमक, आँखों की खनक,
बिना बोले बहुत कुछ कहती है,
जब सोने सा निख़ार जीवन में,
और निराशा कोसों दूर सोती है,
क्या ख़ुशी सुनहरी होती है?

जब इंतज़ार ख़तम हो काली रात,
एक भोर सुनहली देती है,
जब चमकती धूप की स्वर्णिम किरणें
बादल के छोर छू लेती हैं,
जब सागर में पानी की लहरें भी,
हर बूँद में सोना भर लेती हैं,
क्या ख़ुशी सुनहरी होती है?

पग पग बढ़ते क़दमों से,
जब सूरज पहाड़ों को नहलाता,
फूलों पर ओस की बूंदों में,
जब सूरज का रँग चढ़ जाता,
प्रतिबिम्ब ख़ुशी का दिखता है,
जब फूलों पर भँवरा मँडराता,
घोंसले में धूप सेकती जब नन्ही चिड़िया सोती है,
क्या ख़ुशी सुनहरी होती है?

जलती धूप में जब गरीब तन को,
एक चीर का टुकड़ा मिल जाता,
सिकी हुई धरती पर भी जब,
नंगे पैर दौड़ता बच्चा खिलखिलाता,
जब अभाव में भी चेहरे पर संतोष की आभा होती है,
क्या ख़ुशी सुनहरी होती है?

किसान के खेतों में जब सोने सी फ़सल होती है,
खेतों में बहे पसीने से हसरत रोज़ नए मोती पिरोती है,
सबको खिलाने वाले की थाली में जब भरपेट रोटी होती है,
सूरज सी गरिमा जीवन में जब चहुँ ओर दिखाई देती है,
हाँ चमकती हुई मुस्कानों में शायद ख़ुशी सुनहरी होती है ।


Tripti Bisht






जीवन एक इंद्रधनुष

   

कभी मुस्कुराहटें कभी आँसू , कभी आवाज़ तो कभी खामोशी, कभी शरारतें तो कभी भोलापन, और भी न जाने कितने रँग समाये हैं - हाँ जीवन भी एक इंद्रधनुष की तरह है, बस फर्क इतना है कि इसके रँग अनगिनत हैं ।

हर इंसान का इंद्रधनुष अलग होता है, उसके रँग अलग होते हैं, उनका एहसास अलग होता है। मेरे भी जीवन में कई रँगों ने करवट ली है और आगे भी लेते रहेंगे। मेरा हर एक दिन इंद्रधनुष का एक रँग बुनता है । जहाँ बचपन में इंद्रधनुष सिर्फ आसमान में दो पहाड़ों के बीच खिंच जाता था आज वहीँ जीवन के उतार चढ़ाव रोज़ एक नया रँग लेकर आते हैं या फिर शायद एक ही रँग कई दिन तक मेरी जिंदगी को सराबोर कर देता है । जिस दिन ख़ुशी दस्तक देती है उस दिन शायद मेरी जिंदगी का आसमान चमकते रँग सा दिखता होगा और जिस दिन मायूसी छा जाती है या मन उदास हो जाता है तब शायद फीके रँग की एक लकीर खिंच जाती होगी। हम सब जिंदगी के रँगों  से अपना अपना इंद्रधनुष तो बुन ही रहे हैं पर कहीं न कहीं एहसास एक से ही होते हैं फर्क सिर्फ इतना है किसी को ज्यादा किसी को कम, किसी को आज तो किसी को कल।

कहीं खुशियाँ ज्यादा, गम कम,
कहीं रोशनियों ने तोड़ा दम,
कहीं जिंदगी जीत गयी तो कहीं मौत का मातम,
हर किसी के हिस्से में आया उसके इंद्रधनुष का वही रँग,
जो उसने खुद चुना है - न किसी से ज्यादा न कम।

मेरी एक छोटी सी कोशिश जीवन को रँगों के माध्यम से देखने की...

: तृप्ति बिष्ट

दो पैरों की गाड़ी

जहाँ पैदल ही सारेे बच्चे जाते थे स्कूल, क्यों नैनीताल में रहने वाले कई बच्चे चलना गए हैं भूल? घर के सामने वाले पहाड़ पर था मेरा वो स्कूल, कँ...